विधुर
"वाह भैया! तुम्हारी तो बड़ी मौज है| भला इतने दिन कौन साली के घर रुकता है?" सुनंदा बुआ ने पापा की तरफ बड़ी कुटिल मुस्कान के साथ व्यंग किया|
सुनकर पापा बिल्कुल चुप हो गए| पर बुआ की तो आदत ही है हर चीज में उंगली उठा देने की| और अगर कुछ बोलो तो बतंगड़ बना देने की| इसलिए पापा चुपचाप अपने कमरे में चले गए|
थोड़ी देर पहले जो खुशनुमा माहौल था वह अचानक से बदल गया|
'काहे की शर्म| और गलत क्या कहा मैंने? साली के घर पर कोई दिन तक रुका जाता है क्या?'
'जब वर्षा मौसी और मौसा जी को कोई दिक्कत नहीं तो आपको क्यों परेशानी हो रही है'
'कल को दुनिया बात ना करें इसलिए कहती हूँ| मेरा तो कहना भी दूसरों को बुरा ही लगता है| देखो, अब ये छोटी सी लड़की मुझे जवाब दे रही है| संस्कार तो कुछ है नहीं इनके अंदर'
'संस्कार की बात आप ना ही करें तो ही अच्छा है| और इतनी छोटी भी नहीं हूं मैं| तीन साल के बेटे की मां हूं मैं'
'रहोगी तो हमारे सामने बच्ची ही ना| दुनिया देखी है मैंने तुझसे ज्यादा| मुझे मत सीखा'
'पापा आपके भाई है| पर उन्हें दुखी करने का कोई मौका नहीं छोड़ती आप| किसी से थोड़ा हंस कर क्या बात कर ले, ताने मारना शुरू कर देती है आप| आखिर उनकी गलती क्या है?'
' मुझे तुझसे कोई बात नहीं करनी'
'क्यों नहीं करनी? रिश्ते तो आज भी वही है, सोच आपकी बेकार है '
'ज्यादा मत सीखा मुझे| मैं तेरे मुंह भी लगना चाहते'
माहौल बिगड़ता देखकर बुआ भी बात छोड़कर खिसक ली| बस कमरे में अकेली खड़ी रह गई नित्या| यह कोई पहली बार तो है नहीं| नित्या और सुनंदा बुआ में आए दिन झगड़े हो जाते हैं सिर्फ इसी बात को लेकर| क्योंकि सुनंदा बुआ अपनी हरकतो से बाज नहीं आती| और आज भी वही हुआ|
अमर जी की दो बेटियां हैं नित्या और वाणी| नित्या कोई दस ग्यारह साल की रही होगी जब अमर जी की पत्नी सुमेधा की असमय मृत्यु हो गई| लेकिन अपनी दोनों बच्चों की परवरिश के कारण अमर में दूसरा विवाह नहीं किया|
हालाकि परिवार, रिश्तेदार और दोस्तों ने बहुत समझाया| पर उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की परवरिश अकेले ही करने का निर्णय लिया|
हमारे समाज में यह कहा जाता है कि जब पति मर जाता है तो एक महिला को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, जो सच भी है| लेकिन एक अकेले पुरुष को भी कई तरह के तानों और गलत नजरों का सामना करना पड़ता है| ऐसा ही कुछ अमर के साथ हो रहा था|
सबसे ज्यादा तकलीफ तो तब होती है कि जब दुनिया के साथ-साथ खुद अपने ही घर के लोग आपकी तरफ उंगली उठा दे|
कुछ साल पहले जब अमर को किसी काम से चार पांच दिन के लिए बाहर जाना पड़ा, तो नित्या और वाणी का सोचकर उसने सुनंदा जी से मदद मांगी| अमर को पूरा विश्वास था कि सुनंदा आखिर उसकी बहन है तो वह चार-पांच दिन आकर बच्चों के पास रुक जाएगी| पर सुनंदा ने साफ कह दिया कि मेरे घर पर कौन संभालेगा? मैं नहीं आ सकती|
हारकर अमर ने वर्षा को फोन किया तो वर्षा तैयार हो गई| वर्षा के आने के बाद अमर अपने टूर के लिए रवाना हो गया| चार-पांच दिन तक बच्चे वर्षा के साथ रहे| अमर वापस आया तब वर्षा अपने घर वापस रवाना हो गई| पर जब यह बात सुनंदा को पता चली तो उसने अमर को सुनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी| अमर को बहुत दुख हुआ|
उसने कभी भी वर्षा और सुनंदा में फर्क नहीं किया| नित्या और वाणी के जन्म के समय सुनंदा ससुराल से नहीं आ पाई थी ,तो वर्षा आकर रुकी थी कि उसकी दीदी और अम्मा को थोड़ी मदद मिल जाए| अम्मा तो कितनी खुश हुई थी कि मेरी तो दो बेटियाँ है|
पर आज सुमेधा के जाने के बाद क्या रिश्ता बदल गया| अमर और कहता भी क्या? आखिर सुनंदा थी तो छोटी बहन| पर इतना तो समझ आ ही गया था कि पत्नी होती है तब तक मान सम्मान होता है| पत्नी के जाने के बाद तो पति की भी कोई इज्जत नहीं होती|
अमर जरा सा भी किसी से अगर हंस बोल ले तो यह बात सुनंदा को बहुत बुरी लगती और वह वही सबके सामने ताने सुनाने लगती| रिश्तेदारी और आस पड़ोस में जो भाभी चाची पहले खुल कर बात कर लिया करती थी, अब वे भी दूर रहकर ही बात करती थी| अमर के लिए भी यह बात समझ से परे है कि जब रिश्ते वही है तो आज लोगों का उसे देखने का नजरिया क्यों बदल गया|
पर अब नित्या भी बड़ी हो रही थी| उसे भी यह समझ में आता था कि किस तरह उसके पापा का दिल दुखाया जाता है| और आज भी यही हुआ| अमर की कोई गलती नहीं थी, पर फिर भी सुनंदा ने उसे ताना सुना ही दिया|
दरअसल वर्षा मौसी की बेटी की शादी थी| घर में कोई बड़ा था नहीं, इसलिए मौसी मौसा जी ने निवेदन करके अमर को वही रोक लिया था| बस यही बात सुनंदा को बुरी लगी और उसने हंगामा कर दिया|
पर अब नित्या अपने पापा के लिए लड़ने को तैयार थी| आखिर उसे भी यह जानना था कि आखिर रिश्ते बदल कैसे जाते हैं| उसके मन में बस यही सवाल था कि आखिर क्या सिर्फ औरतें ही दुखियारी होती है| मेरे पापा की तो कोई गलती नहीं थी| उन्होंने अकेले ही अपनी बेटियों की परवरिश का जिम्मा उठाया| साथ नहीं दे सकते थे तो कम से कम इल्जाम लगाने का तो हक किसी को नहीं है|
मौलिक व स्वरचित
✍️लक्ष्मी कुमावत
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